कहते हैं अच्छा लिखने से पहले अच्छा पढ़ना चाहिए ;जाने कैसे बचपन से ही पढ़ने का शौक जुनून बन गया था ,जो कुछ भी मिला पढ़े बिना तृप्ति नहीं होती थी ।जाने-अनजाने ही बाल मन में कुछ था जो जड़े जमा रहा था। कॉमिक्स,बाल-कहानी ,
पत्रिकाओं से आगे मुंशी प्रेमचंद ,महादेवी वर्मा ,जयशंकर प्रसाद ,जैनेंद्रआदि पुस्तकालय से आते गए ,मैं पढ़ती गई, कुछ उस समय समझ आया बाकी बाद में आता गया ।
लेकिन मेरा पद्य साहित्य से परिचय बड़ा ही क्रमबद्ध था, पाठ्यक्रम में कबीर, सूर, तुलसी, मीरा से आगे भी बिहारी ,प्रसाद ,पंत, निराला, नागार्जुन, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, आदि पढ़ती रही, धीरे-धीरे एक आलोचनात्मक समझ भी विकसित हो रही थी, जहां' सूर- सूर तुलसी ससि ' पढ़ने के बाद हरिऔध का प्रिय प्रवास ,वैदेही वनवास पढ़ा, तो राम-कृष्ण की कथा को पहली बार नए दृष्टिकोण से देखा ।प्रसाद की कामायनी ,पंत, निराला ,नागार्जुन अज्ञेय को पढ़ते-पढ़ते आलोचनात्मक समझ पैदा हो रही थी ,
1994, दसवीं कक्षा में मैंने पहली बार तुकबंदी करके 8-10 पंक्तियां लिखी थी। धीरे-धीरे तुकबंदी का ये सफर मेरी डायरी के पन्नों से, फेसबुक तक पहुंचा और लेखन के लिए नये विषय ,नए विचार मिलने लगे, किताबों से निकल कर सामाजिक समझ के नए माध्यम फेसबुक के लिए मैंने लिखा है-
"मैं शब्दों का सौदागर ,
संवेदनाएं उधार लेता हूं,
दिलो-दिमाग के गुजारे जितना
कागज पर उतार लेता हूं।"
शृंगार ,भक्ति ,नारी-चेतना, सामाजिक विषमता ,
व्यक्तिगत चेतना ,आधुनिक भाव- बोध डायरी के पन्नों पर अभिव्यक्ति पाता गया, समय के साथ समझ और अभिव्यक्ति सशक्त होती गई।
यशोदा विरह,कपास का फूल,यादों का पुल, चिट्ठियों के एहसास, इस महिला दिवस पर ,बलात्कार, रेड लाइट एरिया ,चॉकलेट पिघल गई, उनका इतवार, लोकतंत्र बनाम- भीड़ तंत्र, पिंजरे आदि कविताएं अलग-अलग भावों का प्रतिनिधित्व करते हुए विषय-वस्तु शैली और भाषिक विविधता
लिए दिखाई देंगी।राजनीति ,समाज ,शिक्षा ,गरीबी, नारी ,प्रेम, बलात्कार सब कुछ 'पीर पराई' में संवेदनशीलता के साथ व्यक्त करने की कोशिश की गई है। समस्त जड़ चेतन के भाव को व्यक्त करने के लिए विषयवस्तु और वर्ग के अनुरूप काव्य शैली व शब्द चयन किया गया है ।तत्सम -तद्भव , देशज, उर्दू ,अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग विशेष रूप से कथ्य को रेखांकित करता हुआ भाव विशेष को अभिव्यक्त करता है । कुछ कविताओं में विषय-विशेष पर पुनरुक्ति या कथन में विरोधाभास दिखाई देता है, कुछ कविताओं की विषय वस्तु या फिर विचारों में वैचारिक मतभेद हो सकता है क्योंकि ये कविताएं मेरे पात्र विशेष की भावनाओं की अभिव्यक्ति है ,स्थिति विशेष में सभी की अलग-अलग मानसिकता हो सकती है।
मन मस्तिष्क को झकझोर देने वाली घटनाओं को देखकर भी पूरे तंत्र से न लड़कर सिर्फ लेखनी चलाने वाले हाथ कई बार लिखने को मजबूर हो जाते हैं-
मुझे कहना चाहिए था
हर गलत के खिलाफ
चुप न रहना चाहिए था
हर सत्य के पक्ष में
अफसोस मैं न कह पाया ,
न सह पाया
कभी भय-वश
कभी स्वार्थ -वश।
'सारी पीर पराई थी' के माध्यम से आपके दिलों तक पहुंचने का यह प्रयास; मेरी कोई कविता, कोई भाव अपना सा,जाना-पहचाना लगे इसी आशा के साथ मेरी पहली पुस्तक । आपके विचार, सुझाव सभी सहर्ष स्वीकार्य है।